मुहर, मोती, मेलुहा…कैसी थी सिंधु घाटी इकॉनमी?

25 फरवरी, 2025

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साल 1924 में जॉन मार्शल ने दुनिया को सिंधु घाटी सभ्यता से मिलवाया। मार्शल उस वक्त भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के डायरेक्टर थे।

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यूं तो इस प्राचीन सभ्यता की स्क्रिप्ट आज तक अनसुलझी है, कई जगहों पर मिले सबूत इसकी इकॉनमी की झलक देते हैं।

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भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान में फैले इसके इलाकों में सिक्के नहीं मिले हैं लेकिन एक जैसे अनुपात में वजन नापने वाले बाट मिले हैं।

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इससे पता लगता है कि यहां बार्टर सिस्टम चलता था। यानी एक चीज के बदले दूसरी चीज का एक्सचेंज।

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हड़प्पा, रोपर जैसे इलाकों में कई मुहरें मिली हैं। स्टडीज के मुताबिक ये लंबी दूरी से संपर्क साधने में काम आती थीं, जैसे सामान को दूसरी जगह भेजने में।

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मुहर के ऊपर छपी आकृति भेजने वाले की पहचान बताती होगी। यह अगर बिना टूटे पहुंच जाए तो सामान की शुद्धता पर विश्वास रहता होगा।

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लोथल और कालीबंगन पर मोती बनाने के कारखानों के निशान मिले हैं। ये मोती पत्थर, कौड़ी से लेकर सोने और मिट्टी तक से बने होते थे।

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इससे पता चलता है कि बड़े स्तर पर इन्हें बनाया जाता था। इन्हें बनाने के लिए अलग-अलग जगहों से कच्चा माल भी आता था।

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इस प्राचीन सभ्यता की पहुंच समुद्र के पार भी थी। यहां पाया गया तांबा ओमान से आने के सबूत मिले हैं। दोनों जगह इसमें निकेल पाया गया है।

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मेसोपोटामियन सभ्यता के प्राचीन लेखों में जिस ‘मेलुहा’ नाम की जगह का जिक्र है, उसे हड़प्पा का इलाका समझा जाता है। यहां के तांबे में भी निकेल है।

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हड़प्पा में मुहरों पर जहाजों, नावों की आकृतियां भी हैं। माना जाता है कि समुद्र के रास्ते ही ओमान, बाहरेन जैसी जगहों से संपर्क हो पाता था।

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लोथल में मिले बंदरगाह भी पानी के रास्ते व्यापार की ओर इशारा करते हैं।

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